गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

चीन की परेड से बेहाल होने से पहले सोचें


चीन के शक्ति प्रदर्शन पर, यह एक लोकतांत्रिक देश भारत के बुध्दिजीवियों की हाय तौबा है। मीडिया ने जिस तरह से पड़ोसी देश की परेड की भव्यता का खाका खींचा वह चौंकाता है। यह भी बताता है कि भारत में आक्रमणकारी क्यों सफल होकर सैकड़ों सालों तक कामयाबी से शासन चलाते रहें है। चीन पर पूरा मीडिया अभियान बेहद बेतुका और एकतरफा है। चीन की परेड को देखने के लिए सिर्फ तीस हजार लोगों को देखने की अनुमति दी गई। क्या यह लोकतांत्रिक भारत में संभव है यदि सरकार ऐसा कोई निर्णय ले तो मीडिया, तथाकथित सामाजसेवी संगठनों, लोकतंत्रवादियों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रया क्या होती। क्या लोग सरकार को निर्देश मानते, परेड देखने के लिए प्रदर्शन धरने, जनसभाएं न होती। विपक्षी दल का रवैया कैसा होता उसके बारे में भी सोचे। पिछले दिनों उरूगुर के सांप्रदायिक दंगों में जो कुछ हुआ वैसा क्या भारत में संभव है। ओलंपिक के पहले बीजिंग को संवारने के लिए जिस तरह लोगों को हटाया गया इलाके खाली कराये गये, क्या ऐसा करना भारत में संभव है। क्या उसी तरह दिल्ली को संवारना संभव है। चीन की भव्य परेड दिखाने वाली मीडिया को बताना चाहिए की चीन के श्रमिक कानून क्या कहते है। उनकी भारत के श्रमिक कानूनों से तुलना करना चाहिए। आप क्यों भूलते है कि देश की अर्थव्यस्था को मजबूत करने के लिए चीन के लोग देश कुछ साल पहले तक साइकिलों का इस्तेमाल करते थे। वहां की सड़कों पर कारें बेहद दुर्लभ थीं। क्या भारत में एक बच्चे का कानून उसी सख्ती से लागू किया जा सकता है जिस तरह से चीन में लागू है। क्या थ्येनमान चौक पर प्रदर्शन कर रहे लोकतंत्रवादियों को भारत में भी उसी तरह टैंकों के नीचे कुचलना संभव है जिस तरह से चीन में। क्या चीन में औद्योगिक व विकास की परियोजनाओं के लिए जमीनों का अधिग्रहण भारत की तरह बेहद मुश्किल है। क्या चीन की तरह भारत में कुछ इलाके में पत्रकारों व मीडिया के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। क्या भारत कश्मीर में उसी तरह के फैसले ले सकता है जिस तरह के फैसले चीन ने तिब्बत के मामले में लिया है। ऐसे न जाने कितने सवाल है जो भव्य परेड की ललाकालीन के नीचे से सिर उठाये हुए है। चीन की इस आतिशबाजी की चमक के पीछे उस बारूद का हाथ है जिसे कम्युनिस्ट शासन ने तैयार किया है। याद करीये सोवियत रूस को। क्या 1984 के विखंडन के पहले सोवियत संघ आज के चीन से पीछे और कम चमकदार था। क्या सोवियत संघ की तकनीकी और सैन्य श्रेठता आज के चीन से कमतर थी। फिर भारतीय मीडिया क्यों प्रलाप कर रहा है।
यही वजह है कि एक अक्टूबर को सैन्य परेड और सैंकड़ों टैंक तथा अन्य हथियारों का निरीक्षण थ्येनआनमन गेट पर बने मंच से राष्ट्र के नाम जारी संबोधन में चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ ने कहा- हमने हर प्रकार की कठिनाई और विफलताओं पर विजय हासिल की है और विश्व को ज्ञात है कि महान उपलब्धियों के लिए हम जोखिम उठाने का माद्दा रखते हैं। देशभक्ति से ओत प्रोत लोगों की उपस्थिति में जिंताओ ने कहा- गत 60 वर्षों में नव चीन का विकास और प्रगति इस बात का प्रमाण है कि समाजवाद ही चीन को बचा सकता है और केवल सुधार तथा खुलापन चीन, समाजवाद और मार्क्सवाद का विकास सुनिश्चित कर सकता है। उन्होंने कहा कि आज समाजवादी चीन आधुनिकीकरण के मार्ग पर प्रशस्त है और विश्व तथा भविष्य पूर्व की ओर बढ़ रहा है।

देश की जनता को गुमराह करने की यह छूट उसे सिर्फ भारत में मिल सकती है चीन में नही। दोनों देशों की शासन प्रणाली में मूल अंतर है। भारत में बोलने लिखने सहित तमाम आजादी चीन में नही मिल सकती है। हर चीज की कीमत होती है। असल में भारत व चीन की शासन प्रणाली में एक मूल अंतर है। भारत में जनता सरकार की नीति तय करती है और चीन में शासक तय करता है कि जनता कैसे चले क्या करें क्या न करें कहां जाए कहां न जाये। ऐसे चीन की तथाकथित चकाचौध से प्रभावित होने से पहले सोचे।

1 टिप्पणी:

  1. विजय जी,
    आपके विचार बहुत सम्यक लगे। भारत और चीन की व्यवस्थाओं में बहुत अन्तर है इसलिये दोनों की सीधे-सीधे तुलना करना ठीक नहीं होगा। इसके लिये अधिक बुद्धि और परिश्रम चाहिये। हमारे देश के पत्रकारों को चीनी-तंत्र में छिपी हुई कमजोरियांम् नहीं दिख रहीं हैं और न ही वहाँ पर लोकतंत्र जैसी आधुनिक आवश्यकता का अभाव ही उन्हें खल रहा है।

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